क्या विकास के लिए परिवर्तन जरूरी है या जीवन में हो रहे बदलाव को हमें सहर्ष स्वीकार करना चाहिए ..

 



परिवर्तन हमारे किए कितना महत्वपूर्ण है या परिवर्तन को हम कितना सही समझते है ये जानने से पहले हम थोड़ा परिवर्तन के बारे में समझने की कोशिश करते है कि

परिवर्तन क्या है और ये कितने प्रकार के होते है तो मेरी समझ से परिवर्तन हम उसे कह सकते है

Ø जो हमें जीवन के प्रत्येक ठहराव के बाद हमें जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित या बाध्य करता हो

Ø जो हमें अपने जीवन में गतिशील रहने के बावजूद ठहरने या ठहराव के लिए प्रेरित या बाध्य करता हो

और परिवर्तन के प्रकार के बारे में बात करें तो ये मुख्यत: दो प्रकार के हो सकते है एक दैविक और दूसरा मानव रचित ...

Ø दैविक परिवर्तन के बारे में बस हम इतना कह सकते है कि जिस परिवर्तन के होने या ना होने पे किसी का भी जोर ना चल पाये वो दैविक परिवर्तन हो सकता है और

Ø मानव रचित परिवर्तन के तो हम खुद गवाह है या हम खुद जन्मदाता है | क्योंकि जिस दुनियाँ को हम अभी अपनी खूली आँखों से देख रहे है ये  मानव द्वारा ही विकसित है ...

आइये इसको और विस्तार पूर्वक समझने की कोशिश करते है   

 

कहते है चाहे हम किसी भी पद पर हो किसी भी मुकाम पर हो किसी भी स्थिति में हो निरन्तर एक जैसा स्थिर /अस्थिर नहीं रह सकते,  या

चाहे हम कितना भी अच्छा काम करें चाहे हम कितना भी बुरा करें एक समय तक ही हम अपनी अच्छाई / बुराई के प्रभावों का प्रतिफल पा सकते है हम कितना भी कोशिशें करले लेकिन बदलाव होने से नहीं रोक सकते क्योंकि

श्रृष्टि किसी एक व्यक्ति या समूह के लिए नहीं है मेरी समझ से यह एक ऐसा मैदान है जहाँ नित्य कोई हारता है तो नित्य कोई जीतता है नित्य कोई नये कृतिमान स्थापित करता है तो नित्य किसी का कोई ना कोई कृतिमान किसी और कृतिमान से पीछे छूटता है क्योंकि आगे बढ़ने के लिए या अपने जीवन में कुछ करने के लिए या अपने जीवन में जो हमने प्राप्त किया है उसका लाभ चाहे वैचारिक रूप से चाहे सेवा रूप से भारी जनसमूह में बाँटने के लिए नित्य प्रयत्नशील रहते है और समय का चक्र तो प्रतिदिन बढ़ता है इसीलिए हमारे या किसी और के ना चाहते हुए भी एक ना एक दिन बदलाव होके ही रहता  है | और वैसे भी परिवर्तन तो संसार का नियम है जिसे आप ही हम पालन करते है उसे चाह कर भी हम रोक नहीं सकते है |  

अगर बदलाव ना हो या चीजें एक समान ही रहने लगी तो क्या होगा ..

Ø हमारे भीतर एक ही तरह के काम को करने की आदत हो जाएगी जिससे हम कुछ नया सीखने के लिए कभी खुद को प्रेरित नहीं कर पायेंगे |

Ø जिस प्रकार जमा हुआ पानी आप ही कुछ दिनों के बाद बदबूदार हो जाती है हमारी स्थिति भी ठीक वैसी ही हो जाएगी ..क्योंकि कोई फ़िक्र ही नहीं होगा ..

Ø         *  श्रृष्टि असंतुलित हो जायेगी

Ø       *  ज्ञान का महत्व शून्य हो जायेगा

Ø       *  हमें अपनी स्थिति का गुमान हो जाएगा जिससे हमारे भीतर तानाशाह

  वाली प्रवृति का जन्म होने लगेगा

Ø       *  भेद भाव रूपी ओहदे का विकास होने लगेगा

Ø        *हम सपनें देखना बंद कर देंगे

Ø         *हम गुलामी के दलदल में फँसने लगेंगे 

Ø        * हमारी सोच नकारत्मक होने लगेंगी इत्यादि

खैर बदलाव ना होने की स्थिति में क्या – क्या हो सकता है ये जानने के बाद भी अगर हम अपने जीवन में हो रहे बदलाव को ईश्वर का एक वरदान समझने के वजाए उसका रोना लेकर बैठ जायेंगे या अपने पद को या अपने ओहदे को या किसी भी प्रकार की प्राप्त जिम्मेवारी को जिम्मेदारी पूर्वक पालन करना नहीं सीखेंगे तो अपना गला हम स्वयं काटने जैसी भूल ही करेंगे और कुछ नहीं ..

 


 

निष्कर्ष

जिस प्रकार रात के बाद दिन का आना तय है ठीक उसी प्रकार हर किसी किसी के जीवन में दुख के बाद सुख का आना तय है श्रृष्टि का ये क्रम बदलाव होने की वजह से ही श्रृष्टि में सुचारू है..

ऐसा नहीं है कि ये बदलाव सिर्फ हमें अपने जीवन में घटित हो रही घटनाओं के रूप में ही देखने को मिलती है अगर हम अपने शरीर की बनावट पर ही गौर करें तो बदलाव का असर हमें अपने शरीर पर भी दिखेगा

अगर हम अपने रिश्तों पर भी गौर करें तो बदलाव हमें वहाँ भी देखने को मिलेगा |

अगर हम मौसम पे भी गौर करें तो बदलाव उसमें भी होते रहते है

अगर हम अपने शहर की ओर देखते है तो बदलाव हमें वहाँ भी देखने को मिलेगा हमारी नजर जिस ओर भी जाएगी बदलाव हमको वहाँ देखने को मिलेगा |

क्योंकि बदलाव किसी भी वस्तु को पहले से बेहतर बनाने के लिए ही की जाती है ना कि उस वस्तु को बर्बाद करने के लिए इसीलिए बदलाव से घबराना नहीं चाहिए उसको सहर्ष स्वीकार करना चाहिए मेरी दृष्टि से तो यही उचित है ..

क्योंकि परिवर्तन का ही ये परिणाम है कि हम अपनी बातों को दुनिया के सामने रखने में सफल हो रहे है ..क्योंकि हम परिवर्तनशील है |



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